स्वागत कक्ष में
रखी धात्विक मूर्ति
की तरह ,
निष्प्राण,
मूक, बधिर, निर्दोष-
वो
जाने कितने वर्षो पुरानी
ढ़ाल की तरह,
तलवार के वारों
के खरोंच के
निशान-
अपने सीने से
लगाये ,
अपने ऊपर हुए
आक्रमणों की याद
समेटे ,
डायनासोर की तरह
अपना अस्तित्व खो
चुके है।
सच का लावा
उगलने वाली जिह्वा,
सुसुप्त ज्वालामुखी की तरह,
काले कीचड के
ढेर से ढक
गयी है.
अनाज बरसाने वाली जमीन-
जैसे अकाल में
कट फट जाती
है,
दरिद्रता दर्शाती है,
वो भी कुछ
जाने तो कुछ
अनजाने में अपनी
धनराशि खो बैठे
है।
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